उठा के सर कभी सर को झुका के-बहुत रोया वो मेरे खत जला के- पूरी गजल पढ़ने के लिये क्लिक करें।

उठा के सर कभी सर को झुका के बहुत रोया वो मेरे खत जला के तखय्यूल में तेरी महफिल सजा के चिराग ए दिल रखा हमने जला के क़रार आये भी कैसे वो गया है मेरे अरमान मिट्टी में मिला के यही डर है कि मेरा आशियाना उड़ा ले जाऐं ना झोंके हवा के चिरागों में जरूरत है लहू की अलग दस्तूर है शहर ए वफ़ा के तबस्सुम रक्स करता है लबों पे बगल में लाए हैं खंजर छुपाकर करोगे अब नजरअंदाज कैसे मैं राह में बैठा हूं आंखें बिछा के लुटा दी कायनात ए दिल उन्हीं पे फरीद आहे ही रखी हैं बचा के

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