क्या ऐसा भी घर है यहाँ अपने शहर मेँ ? रोज़े हैं मगर सहरी ओ अफतार नहीं हैं।

क्या ऐसा भी घर है यहाँ अपने शहर मेँ ?  रोज़े हैं मगर सहरी ओ अफतार नहीं हैं।

 क्या ऐसा भी घर है यहाँ अपने शहर ?

मेँ रोज़े हैं मगर सहरी ओ अफतार नहीं हैं।

हमेशा बदलाव ज़िंदगी का एक पहलू रहा है। हिन्दी मेँ कहावत है कि परिवर्तन ही प्रकृति का नियम है। सुबह दोपहर शाम बचपन जवानी बुढ़ापा कभी सर्दी कभी धूप कभी खुशी कभी रंज ज़िंदगी और मौत ये सब बदलाव का ही तो एक रूप है। समाज मेँ ज़िंदगी को मुतासिर करने वाला एक कड़वा सच और कड़वा बदलाव है अमीरी और गरीबी। कुछ लोग गरीबी का ऐलान करते हुए हाथ फैलाए सड़कों पर आ जाते हैं। और कुछ अना पसंद अपनी झूटी अना की खातिर तिल तिल कर मर जाते हैं। मगर समाज मेँ मुहल्ले मेँ बस्ती मेँ अपनी गुरबत का चर्चा नहीं होने देते। लेकिन हालात चीख चीख कर बतला रहे होते हैं। ऐसा ही माजरा कल शाम आँखों के सामने आया रात भर नींद नहीं आ सकी ज़मीर धिक्कारता रहा कि तुम कलमकार हो तो लिखते क्यों नहीं ? हो सकता है कि उस अना पसंद घर की तरफ इस रमज़ान मेँ एहले दिल की नज़र चली जाए। मामला यूँ है कि अपने ही शहर की एक नायाब फैमिली जिसका शुमार हमेशा बा सलीका बा इल्म और दौलत मंद घरानों मेँ हुआ करता था। जिनके घर से कई और लोगों के पेट भरा करते थे। ईद पर अपने ही नहीं जाने कितने गरीबों के तन ईद पर ढंके जाते थे। कल रात उसी घर की एक खूबसरत फूल सी नादान सी नौ जवान परदा नशीं बच्ची अपने अध् फटे दुपट्टे से चेहरा छिपाए जिसकी कमीज का दामन बोसीदा बुरी तरह चिथडे उड़े हुए मगर तहजीब का दामन समेटे शायद सहरी को कुछ लेने आई थी जो सिर्फ एक पुड़िया मेँ था। मैने उसका बचपन देखा था उसके बाद आज। बस उसके हालात देख के बेचैनी हुई दबी ज़ुबान से कुछ ख़ास दोस्तों से मालूम किया तो पता लगा कि असल मेँ इस फैमिली के हालात अब बहुत खराब हो चुके हैं। घर मेँ एक पागल को मिलाकर कुल तीन औरतें हैं। घर का इकलौता मर्द जिसका करोबार बुरी तरह फेल हो जाने से बाहर रहकर बीवी बच्चों को पालने के साथ अपनी ज़रा सी कमाई से इन्हें भी कुछ ना कुछ भेजता रहता है। दो एक रिश्ते दार हैं जो कुछ ना कुछ मदद कर देते हैं। ज़्यादा जानकारी करने पर पता लगा कि अन्दर ही अंदर गरीबी की मार झेलते रहने से इन लोगों के दिमाग भी कुछ सन की जैसे हो गए हैं। खानदानी होने और कभी रही अमीरी की अना दीमक की तरह जिस्मों को रंग रूप को जिस्म के कपड़ों और पैरों की चप्पलों तक को धीरे धीरे खाए जा रही है। मगर इनकी अना इनको किसी के सामने हाथ नहीं फैलाने दे रही और गैरत किसी से हाले दिल कहने की ज़ुबान को इजाजत नहीं दे रही।ऐसे हालात के मारे ग़ैरतमंद और अना पसंद कहीं भी और किसी भी शहर मेँ हो सकते हैं। कोई ऐसा रास्ता निकाला जाए जिससे इनकी अना भी बची रहे और रसूल अल्लाह सल्ल. अलैहि वसल्लम के फरमान के मुताबिक इनके हालात भी सुधार मेँ आ सकें। यहीं ज़रूरत है इस्लाम की खूबसूरत तालीम की कि इक हाथ से दो तो दूसरे हाथ को पता न लगे। क्या इस्लाम ने इन जैसे लोगों के लिये दरवाजे नहीं खोले ? क्या ये रमजान मेँ दी जाने वाली इमदाद और हमदर्दी के एहल नहीं ?