मैं जिधर जाउँ बरसते हैं उधर ही -----------------------

मेरा ये दिल है लिख देना तू मेरी जान लिख देना कफ़न के हर सिरे पर मेरे हिंदुस्तान लिख देना हमें काशी से उल्फ़त है हमें का'बे से निस्बत है सभी पर है निछावर ये हमारी जान लिख देना सभी के दर्द की इस वास्ते दवा है ग़ज़ल शिकस्ता दिल से जो निकली है वो सदा है ग़ज़ल ज़रा क़रीब से देखो ग़ज़ल का हुस्नो-जमाल चलेगा फिर ये पता कितनी ख़ुशनुमा है ग़ज़ल ज़मीं पे जुगनू फ़लक पर हंसी क़मर चमके जिधर भी देखूं उजालों से रहगुज़र चमके मेरे ख़याल को ऐसी उड़ान दे मौला कि आसमाने-अदब पर मेरा हुनर चमके मुहब्बत के सफ़र में रास्ते दुश्वार होते हैं जो तूफ़ानों से लड़ते हैं वही तो पार होते हैं जो फ़ितरत है हसीनों की समझ में आ नहीं सकती कभी तो प्यार करते हैं कभी बेज़ार होते हैं ज़िंदगी आज मुझे लेके जहां आई है हमसुख़न कोई नहीं बस मेरी तन्हाई है मैं जिधर जाऊं बरसते हैं उधर ही पत्थर दिल लगाने की अ़जब मैंने सज़ा पाई है ग़रीबों की हिमायत में कटे ये ज़िंदगी अपनी इसी में ढूंढता हूं मैं हक़ीक़त में ख़ुशी अपनी मुझे फिर याद आते हैं ज़माने वो मुहब्बत के मिला इक फूल सूखा जब भी खोली डाइरी अपनी सता कर अपने भाई को कोई ख़ुश हो तो कैसे हो दबाकर अपने भाई को कोई ख़ुश हो तो कैसे हो कोई समझा दे आकर ये यहां हिंदू मुसलमां को डराकर अपने भाई को कोई ख़ुश हो तो कैसे हो ग़म भी है और है इक ज़रा सी ख़ुशी ज़िंदगी, ज़िंदगी, ज़िंदगी, ज़िंदगी या ख़ुदा देना मत बाप को बेटी के मुफ़लिसी, मुफ़लिसी, मुफ़लिसी मुफ़लिसी कैसे मुफ़लिस मनाए ईद अपनी बढ़ती महंगाई के ज़माने में जाने कब से उदास बैठा हूं दर्द और ग़म के शामियाने में (क़तआ़) तक़्सीमे-मुहब्बत है ज़माने में मेरा काम इस वास्ते 'क़ासिम अली' रखा है मेरा नाम आए हो तो मिलकर रहो दुनिया में बहम तुम तुम सबको मेरा आज यही एक है पैग़ाम क़ासिम बीकानेरी

मैं जिधर जाउँ बरसते हैं उधर ही -----------------------